भगवान श्री रजनीश, जिन्हें ओशो के नाम से भी जाना जाता है, ओशो 19वीं ओर 20वीं सदी के सबसे बदनाम आध्यामिक गुरु रहे है। ओशो ने पारम्परिक धर्म, समाज, राजनीति और परमात्मा तक पर सवाल उठाएं है। यही वजह है कि कई लोग उन्हें नास्तिक समझते है, जबकि उनके शिष्यों ने उनको परमज्ञानी और आधुनिक युग में एक क्रांतिकारी के रूप में देखते है।
अब मन में सवाल उठता है कि ओशो नास्तिक थे या आस्तिक? आइए इसे विस्तार से समझने की कोशिश करते है।
1. नास्तिकता का अर्थ क्या है?
हिंदुस्तान में "नास्तिक" शब्द का अर्थ है जो भगवान में विश्वास नहीं करता या वेदों और धर्म ग्रंथों को नहीं मानता है। पारम्परिक भारत दर्शन में चार्वाक, जैन और बौद्ध दर्शन को भी नास्तिक माना गया है। क्योंकि यह वेदों और उपनिषद को भगवान का प्रमाण नहीं मानते।
2. धर्म का दृष्टिकोण
हिंदू धर्म में ग्रंथों को ईश्वर का आदेश माना गया है। वेदों को अंतिम सत्य कहा गया है। लेकिन ओशो ने कहा वेद इंसान ने लिखे है हर वेद में उसको लिखने वाले ऋषि का नाम लिखा है वेद ईश्वरीय नहीं है। ओशो कहते थे आम इंसान ने वेद नहीं पढ़े है उन्होंने पंडित पुरोहित से सिर्फ सुना है इसलिए उनको सत्य पता नहीं है हिंदू धर्म में मूर्तिपूजा को माना जाता है इस पर भी ओशो ने टिप्पणी की है। कहा है भगवान का कोई आकार,रूप नहीं है इंसान ने अपनी कल्पना से अपने जैसे दिखने वाले को ही भगवान बना लिया है
ओशो कहते थे: धर्म तुम्हारे भीतर है, मंदिरों और मस्जिदों में नहीं।इसलिए धर्म को मानने वाले ओशो को नास्तिक समझ लेते है
3. विज्ञान का दृष्टिकोण
विज्ञान प्रमाण और सबूत पर आधारित है जब आप विज्ञान को बोलोगे की ईश्वर पर विश्वास करो तो विज्ञान कहेगा, क्या सबूत है तुम्हारे पास ईश्वर होने का। विज्ञान हर चीज को साबित करने को कहता है। लेकिन ईश्वर को किसी ने देखा हीं नहीं है तो उससे कोई साबित कैसे कर सकता है। ओशो के हिसाब से ईश्वर निराकार (जिसका कोई आकार नहीं है) है। ओशो विज्ञान का सम्मान करते थे लेकिन विज्ञान की भी सीमाएं है। विज्ञान बाहर के जगत की खोज कर सकता है और उसे साबित भी कर सकता है लेकिन ईश्वर एक अंदरूनी अनुभव है। इस अनुभव को ध्यान के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है।
4. विचारकों का दृष्टिकोण
कई दार्शनिकों ने ईश्वर पर अपने हिसाब से कहा है जैसे
नीत्शे ने कहा: "God is dead" उनके हिसाब से ईश्वर समाज को नियंत्रण करने का साधन बन गया है
कार्ल मार्क्स ने धर्म को "अफीम" कहा है धर्म एक झूठी सांत्वना है
बुद्ध ने आत्मा या ईश्वर पर कुछ नहीं कहा उन्होंने बस ध्यान, करुणा और अनुभव को महत्त्व दिया
ओशो ने इन सब विचारकों को पढ़ा और अपने सुनने वालों को अपने हिसाब से प्रवचन दिया। वे कहते थे:
ईश्वर एक झूठ है, जो डर, मृत्यु और अज्ञान के कारण है। लेकिन दूसरी तरफ ओशो ने अस्तित्व जो कि मौन, शुद्ध और असीम है उसके सत्य कहा है
5. ओशो का दृष्टिकोण
शुरुआती समय में ओशो नास्तिक थे क्योंकि वह बहुत तीव्रता से ईश्वर को खोज रहे थे किताबों व चिंतन करके लेकिन जैसे जैसे उन्होंने बहुत सारी किताबें पढ़ी। जिससे उनका चेतना ने विकास किया जिससे आगे उन्होंने कहा "मैं न तो आस्तिक हूँ, न नास्तिक। में बस हू अस्तित्व में" उनके हिसाब से ईश्वर एक अनुभव है जो महसूस होता है न कि कोई वस्तु या आकार। उन्होंने धर्म को मानव का शोषण करने वाला साधन बताया है। जो पूरी तरह डर और अज्ञान पर टीका है। ओशो जैसे महापुरुष को भारत ने बहुत गलत समझा है। अंत में ओशो की एक पंक्ति कहना चाहूंगा।
स्वयं को जानो, वही सच्चा धर्म है, वहीं सच्चा ईश्वर है।
निष्कर्ष: ओशो ने अपने कई प्रवचन में अपने को नास्तिक कहा है लेकिन जीवन के अनुभवों के साथ उनका यह दृष्टिकोण बदला है। ओशो आकर, रूप वाले ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने सच को अनुभव के माध्यम से जानने को कहा है। भगवान ईश्वर कही बैठा नहीं है पूरा संसार एक दूसरे से जुड़ा हुआ है अस्तित्व प्रकृति सत्य हैं।
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